निस्तेज होती पीढ़ी को दीजिए नयी ऊर्जा

निस्तेज होती पीढ़ी को दीजिए नयी ऊर्जासुरेश सेठवेल्लोर मठ में बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वामी विवेकानंद को स्मरण किया और बताया कि स्वामी जी कहा करते थे—'मुझे सौ प्रतिबद्ध और ऊर्जावान युवक दे दो, मैं इनके सहयोग से युग पलट दूंगा।Ó
निश्चय ही भारत एक युवा देश है। देश की उन्चास प्रतिशत जनसंख्या पैंतीस बरस तक की उम्र के उन युवकों की है, जिनकी ऊर्जा और उद्दाम युवा शक्ति अगर सही मार्ग एवं दिशा पा जाये तो तीसरी दुनिया के इस पिछड़े हुए देश का कायाकल्प होते देर न लगेगी। स्वामी जी ने मात्र 39 बरस की उम्र पायी थी लेकिन इस सीमित आयु में ही उन्होंने देश की सांस्कृतिक चेतना जगाने का अनिवर्चनीय कार्य किया। लेकिन स्वामी जी का धनात्मक रूप से अर्जित रहने का संदेश तो अब जैसे बीते युग की कहानी हो गया। इस ऊर्जा और चेतना को जगाने का काम आज मोदी से लेकर छोटे-बड़े नेताओं द्वारा अपने धुआंधार भाषणों में किया जा रहा है। अभी उनका 157वां जन्मदिवस मनाते हुए उनकी देश की युवा शक्ति की ऊर्जा पर विश्वास करने की बात प्रधानमंत्री ने की। लेकिन देश की यह पीढ़ी इन आवेगपूर्ण संदेशों के बावजूद देश की आजादी की लगभग पौन सदी में निस्तेज क्यों होती चली गयी?
अभी इस अवसादग्रस्त हो रही पीढ़ी के बारे में जो नये आंकड़े सामने आ रहे हैं, वह यही बताते हैं कि सन् 2018 की तुलना में पिछले बरस कुल आत्महत्याओं की संख्या में वृद्धि हो गयी। इस कृषि प्रधान देश में ग्रामीण युवकों की नयी पीढ़ी खेतीबाड़ी के अपने पुश्तैनी धंधे को जीने का ढंग मानने को तैयार नहीं। हजारों और लाखों की तादाद में ग्रामीण युवक एक वैकल्पिक मलाईदार अधुनातन जीवन पाने के लिए शहरों का रुख कर रहे हैं। इसे महामिनष्क्रमण का नाम दिया जा सकता है, क्योंकि गांव खाली हो रहे हैं, लेकिन देश के महानगर या औद्योगिक शहर उन्हें अपने दामन में समेटने के लिए तैयार नहीं। औद्योगिक क्रांति देश में होने से पहले ही अपनी आखिरी सांसें गिनती नजर आ रही है। बारह पंचवर्षीय योजनाओं के योजनाबद्ध आर्थिक विकास का मार्ग तय करने के बावजूद आज देश में?उद्योगों की विकास गति एक-तिहाई रह गयी। चार प्रतिशत औद्योगिक विकास दर की प्राप्ति किसी भी प्रकार कोई उपलब्धि नहीं कही जा सकती। योजनायें बनाने वाले आयोग को देश के लिए सफेद हाथी करार दे दिया गया।
देश के नीतिनियंता जैसे अनिश्चय के भंवर में फंस गये हैं। पण्डित नेहरू द्वारा रचित मिश्रित अर्थव्यवस्था की धारणा, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र का वर्चस्व और अधिक से अधिक लाभ कमाने की मारामारी की जगह सर्व कल्याण की भावना का प्रधान्य था, अतीत के किसी कोहरे में डाल दी गयी। बीसवीं सदी के आखिरी दशक में निजी क्षेत्र की भागीदारी पर भरोसा करने वाली नयी आर्थिक नीति सर्व स्वीकार्य हो गयी। सार्वजनिक उपक्रमों की कारगुजारी को कर्मचारियों की दायित्वहीनता और नौकरशाही की बन्दिशों के कारण अव्यावहारिक और घाटे का सौदा बना लिया गया। देश का आर्थिक विकास द्रुत हो और हमारा भारत आर्थिक दौड़ में पूंजीपति देश को परास्त करके आगे निकल जाये, इसके लिए सार्वजनिक उपक्रमों में विनिवेश और निजी और सार्वजनिक भागीदारी के नये नुस्खे ने बल पकड़ा। अटल काल रहा हो या मनमोहन काल, आर्थिक विकास के लिए यही फार्मूला अक्षरक्ष: सत्य माना गया। मोदीकाल की इन दोनों पारियों में तो विदेश यात्राओं की शतकीय पारी और व्यावसाियक घरानों को राहतें देकर एक नये औद्योगिक समाज के निर्माण का दावा किया गया है। आज पूंजी निर्माण प्रमुख हो गया और श्रम प्रधान गतिविधियां गौण!
नतीजा साफ है, जब गतिविधियां ही श्रम प्रधान नहीं, तो उसके अनुरूप देश की ऊर्जा देश की युवा पीढ़ी को नये ढंग से प्रशिक्षित करने की चेष्टा कौन करता? मैकाले की शिक्षा प्रणाली की निन्दा तो होती रही, लेकिन इसके स्थान पर इक्कीसवीं सदी की कोई व्यावहारिक और नये युग के अनुरूप शिक्षा प्रणाली सामने नहीं आयी। पुराने ढंग से प्रशिक्षित युवक अप्रासंगिक होते गये। शिक्षा का कोई नया ढांचा उभर नहीं सका। इसलिए एक नया विकट सत्य सामने आया है कि जिस नये मशीनी समाज का निर्माण देश में किया जा रहा था, उसके अनुरूप प्रशिक्षित श्रम देश में नहीं है। इसीलिए कहा जाने लगा कि इस स्तर पर नौकरियों की भरमार है, लेकिन उचित कामगार नहीं मिल रहे। उधर आंकड़ों का विरोधाभास बतला रहा है कि देश में ग्यारह करोड़ लोग युवक बेकार हैं और हर बरस उनमें एक-डेढ़ करोड़ बेकार और जुड़ जाते हैं। एक ओर देश की केंद्र और राज्यों में चुनी हुई सरकारें?'हर हाथ को काम और हर पेट को रोटीÓ के लोकलुभावन नारों से युवा-पीढ़ी को दिलासा देती हैं और अपनी सत्ता की अगली पारी सुरक्षित कर लेती हैं। दूसरी ओर नये आंकड़े बताते हैं कि देश में बेकारी का वर्तमान 6.1 प्रतिशत पिछले ग्यारह बरसों का आंकड़ा इतिहास में सबसे अधिक रहा।
ग्रामीण समाज से पलायन करके शहरों में वैकल्पिक जीवन की तलाश में आये युवक यहां विस्तृत होती आर्थिक मन्दी की विभीषिका से जूझ रहे हैं। हार कर उचित आजीविका न पाकर या तो नशों, अपराध और आतंकवाद की अंधेरी दुनिया में?उतर जाते हैं या विदेशों की ओर पलायन की राह पकड़ते हैं। शहरों में आइलैट अकादमियां उभर आयी हैं, जो वैध-अवैध तरीकों से देश की बौद्धिक संपदा को विदेशों का मार्ग दिखा रही हैं। पंजाब और हरियाणा के कुछ जिलों में तो परिवारों में?एक भी युवा आप नहीं पायेंगे। गांव के गांव खाली हो गये। आंकड़े बताते हैं कि विश्व में सबसे अधिक मुद्रा कमाकर प्रवासी भारतीय भारत में अपने नाते-रिश्तेदारों के पास भेजते हैं। लेकिन यह धन न तो कृषि विकास का निवेश बनता है और न ही औद्योगिक क्रांति के लिए कोई नया मार्ग प्रशस्त करता है। अभी विश्व बैंक ने भी अपने आधिकारिक आंकड़ों में देश की आर्थिक विकास दर को पांच प्रतिशत घोषित कर दिया है। नये वर्ष 2020-21 के लिए भी यह दर मात्र 5.8 प्रतिशत घोषित हुई है। जबकि सन् 2018 में इस विकास दर ने एक बार आठ प्रतिशत को भी छू लिया था। इसके बाद यह विकास दर निरंतर पतनशील क्यों हो गयी? क्या इसलिए कि इस पौन सदी की आजादी में देश के लिए किसी मूलभूत ढांचे का निर्माण नहीं हो सका, या कि देश के कोर उद्योगों की विकास दर निरंतर ह्रास की ओर रही?
यह कारण है, परन्तु गौण। सबसे बड़ा कारण यही है कि देश की बहुसंख्य ऊर्जावान युवा पीढ़ी का समुचित इस्तेमाल नहीं हो रहा। स्वामी विवेकानंद से प्रेरित होकर देश की युवा पीढ़ी की ऊर्जा का इस्तेमाल करने का संदेश तो मोदी ने दे दिया लेकिन युवकों के लिए प्रासंगिक शिक्षा के नये द्वार कब खोले जायेंगे? स्व-रोजगार से अपनी जिंदगी में नये अर्थ भरने का संदेश तो समय के मसीहाओं ने दे दिया, लेकिन इसके लिए भी युवकों को परंपरागत दृष्टि और सोच के कठघरों से आजाद किया जाये। नयी शिक्षा प्रणाली के विकास के बिना इनकी उड़ान को पंख नहीं मिलेंगे। उधार के पंखों की सहायता से भला वे कितने योजन जायेंगे?
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