खुले दिल से स्वीकारें हिंदी के उदार मन को


देश में हिंदी के बारे में सत्तर वर्ष के बाद ऐसा विवाद छिड़ गया, जिसके बारे में लगभग निर्णय हो चुका था। इस देश के चालीस प्रतिशत लोगों की लिखने-पढऩे की भाषा हिंदी है और देश के सत्तर प्रतिशत लोग हिंदी बोलते और समझते हैं, यह सत्य जनगणना मेंउद्घाटित हुए थे। आज इसकी प्रामाणिकता पर प्रश्न उठाये जा रहे हैं।
यह निर्विवाद तथ्य है कि 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को राष्ट्रभाषा और राजभाषा मानने के बाद छब्बीस जनवरी, 1950 को फिलहाल इसे संपर्क भाषा मान कर पन्द्रह बरस में इसे देश की राष्ट्रभाषा बनाने का वादा था। तब भी इसके थोपने की बात कहकर दक्षिण से जो आवाज उठी, उसी के कारण इसे 1963 में केवल राजभाषा का दर्जा दे दिया गया और दस साल बाद इसके रुतबे का यही अधिनियम बना दिया। बीच में से सन् पैंसठ गायब हो गया, जब इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा मिलना था। इसका अर्थ कहीं भी नहीं था कि इसके बाद हिंदी अपनाने से अंग्रेजी की स्वीकार्यता पर कोई प्रभाव पड़ जायेगा। सन् 1968 में त्रिभाषीय फॉर्मूला कमेटी ने अपना फॉर्मूला प्रस्तुत किया था, जिसमें प्रदेशों में अंग्रेजी और कोई भी अन्य क्षेत्रीय या अतिरिक्त भाषा अपना कर विद्यार्थियों को ज्ञान अर्जित करने का संदेश दिया गया था।
इसके बाद गुजरात उच्च न्यायालय की एक टिप्पणी से यह प्रश्न उभरा कि भारत की राष्ट्रभाषा कौन-सी है भारतीयता और उसकी संस्कृति पर गर्व करने वाले जागे कि अरे इतने वर्ष बीत गये, हम तो इस सत्य का ही सामना नहीं कर पाये कि इस सुजलां, सुफलां, मलयज शीतलां, देश की कोई राष्ट्रभाषा ही नहीं है। इस बीच हिंदी ने अभूतपूर्व प्रगति कर ली थी। तथ्य साक्षी बने कि विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली चार भाषाएं हैं—मांद्रियन (परम्परागत चीनी भाषा), स्पेनिश भाषा, अंग्रेजी और हिन्दी।
इस समय हिंदी विश्व के 170 देशों में पढ़ायी जा रही थी और 600 अंतर्राष्ट्रीय संस्थान हिंदी के प्रचार विकास का काम कर रहे थे। इंटरनेट और कंप्यूटर ने विश्व के मानचित्र पर पैठ बना ली। आधुनिक तकनीक संचार माध्यमों में अपनाने के नजरिये से हिंदी ने अंग्रेजी को कहीं पीछे छोड़ दिया। जहां तक विश्वकोश बनाते हुए नये शब्दों के सम्मिलन का संबंध था, हिंदी ने अंग्रेजी को पीछे छोड़ दिया, भले ही सरकारी स्तर पर इसे वह संरक्षण नहीं मिला, जो अगर राष्ट्रभाषा हो जाती तो उसे मिलता। संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा वह अभी नहीं बनी, लेकिन उसे उसके समाचारों की भाषा बना दिया गया है। नेहरू से लेकर अटलजी और फिर नरेन्द्र मोदी और सुषमा स्वराज तक ने संयुक्त राष्ट्र की महासभा को हिंदी में संबोधित कर इसका गौरव बढ़ाया।
पांच साल पहले जब मोदी सरकार की पहली पारी वजूद में आयी, तब गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने हिंदी को राजभाषा की प्रतिष्ठा दिलवाने की चेष्टा दक्षिण भारत के राज्यों में की। जयललिता और चन्द अन्य समर्थक नेताओं ने इसे जबरन हिंदी थोपना कहा। गृहमंत्री पीछे हटे और उन्होंने हिंदी का पत्राचार हिंदी में ही करने की अनिवार्यता हटा दी। अब सत्रहवीं लोकसभा के चुनावों के बाद मोदी शासन की दूसरी पारी शुरू हो गयी है। नयी शिक्षा नीति का प्रारूप तय करने का मसला उठा, तो फिर हिंदी अपनाने की बात हुई। त्रिभाषाई फार्मूले का रास्ता भी चर्चा में आ गया। इसके बाद इस हिंदी दिवस पर वर्तमान गृहमंत्री अमित शाह के एक बयान को क्षेत्रीय भाषा और अंंग्रेजी के पक्षधर ले उड़े। अमित शाह ने 'एक देश एक भाषा हिन्दीÓ की बात कह राज्यों द्वारा त्रिभाषाई फॉर्मूले के रास्ते इसे अपनाने की बात कही।
बजाय अपनी सांस्कृतिक गरिमा को संजोकर रखने वाली हिंदी के स्वागत के, इसे बलात थोपा जाने का षड्यंत्र कह तमिलनाडु में स्टालिन, आंध्र में ओवैसी और येचुरी जैसे वामपक्षीय नेताओं ने इसका मुखर विरोध करना शुरू कर दिया। पंजाब तक भी इसकी धमक आने लगी कि हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारने की बजाय इसके बहिष्कार की भी बात होने लगी। त्रिभाषाई फार्मूले का गलत विवेचन करते हुए कहा जाने लगा कि इससे हिंदी को पिछले दरवाजे से बलात थोपने की बात है जबकि ऐसा नहीं था। हिंदी विरोधियों का यह मत तो स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि हिंदी देश की बाइस भाषाओं में से एक भाषा है। लेकिन कहीं भी किसी भी प्रशासनिक आदेश मेंइसके द्वारा किसी क्षेत्रीय भाषा का रुतबा घटाने का कोईप्रयास नहीं हुआ। मात्र इतनी ही कोशिश हुई कि अंग्रेजी, अपनी क्षेत्रीय भाषा या किसी भी अन्य भाषा के साथ हिंदी को भी अपना लिया जाये।
दरअसल, सत्य समझने की बजाय हिंदी की कठिन शुचिता की बात होने लगी। जबकि अवधी, बुन्देलखण्डी, भोजपुरी को खड़ी बोली के साथ हिंदी का एक अविभाज्य अंग माना जा चुका है। ममता बनर्जी ने भी हिंदी की इस शुचिता और सम्प्रेषणीयता पर सवाल उठाये हैं। वास्तविकता यह है कि जितने भी बंगाल के प्रतिष्ठित लेखक हुए हैं, उससे कहीं अधिक हिंदी के अपने हैं। पंजाबी में अमृता प्रीतम से लेकर अमरजीत कौंके तक को बोधगम्य हिंदी अपनेपन के साथ हिंदी में बाकायदा पहचान देती है।
हिंदी को नकारने वाली इस सदी के हिंदी पाठकों ने न केवल उर्दू से लेखन की शुरुआत करने वाले प्रेमचंद को सिर आंखों पर बिठाया, बल्कि साहित्य सृजन मेंउनके भाषाई संस्कारों को भी स्वीकार किया। इसीलिए आज के सृजनात्मक साहित्य में हिंदी मेंमण्टो भी उतने ही अपने हैं, जितने कृष्णचन्दर और इस्मत चुगतायी।
नि:संदेह हिंदी ने तो अपने द्वार सब आंचलिक भाषाओं के लिए खोल दिये। हम हिंदी साहित्य मेंफणीश्वर नाथ रेणु के 'मैला आंचलÓ और 'परती परिकथाÓ की बात ही नहीं कर रहे। अगर हिंदी उदार न होती तो क्या कृष्णा सोबती का 'जिंदगीनामाÓ एक क्लासिक के तौर पर स्वीकार किया जाता, जिसमें पंजाब की धरती से उठती हुई भाषा की मिट्टी की गन्ध है भीष्म साहनी की 'मय्यादास की माड़ीÓ हो, या द्रोणवीर कोहली का 'तक्सीमÓ, उतरती धूप-सा कृष्णा सोबती का दिलोदानिश हो या हम हरामत के तीनों भाग, इन सब में अपने परिवेश की धरती को अपनी बांहों में समेट लेने का आग्रह है। इस खुलेपन के बावजूद अगर आज की हिंदी पर संकीर्ण सोच है तो यह दुराग्रह है। कहा जाता है कि अगर अंग्रेजी विश्व के अंतर्राष्ट्रीय मंच की भाषा बनी, तो उसने अंग्रेजी में विक्टोरियन और अमेरिका के हार्वर्ड रूप ही स्वीकार नहीं किये, बल्कि चेक और पोलिश रूपों को भी स्वीकारा।
आज के लेखक अगर अपनी अभिव्यक्ति में उर्दू, हिंदी और पंजाबी की त्रिवेणी बहा सकते हैं, तो इसके साथ कर्नाटक, कन्नड़ और तमिल की गरिमा समेटने के लिए भी तैयार हैं। त्रिभाषाई फार्मूले का प्रारूप शायद इसीलिए स्वीकार किया गया था। सही है कि विनोबा भावे ने हिंदी की राष्ट्रव्यापी सर्वस्वीकार्यता के लिए इसकी 'खिचड़ी भाषाÓ की वकालत की थी। पण्डित नेहरू भी क्लिष्ट हिंदी की जगह सब भाषाओं का संगम 'हिन्दुस्तानीÓ की वकालत करते रहे।
इसलिए यह तर्क स्वीकार्य नहीं है कि हिंदी के संस्कृतनिष्ठ आंगन में किसी और भाषा के घुसने की गुंजाइश नहीं। बल्कि आज देश की राजभाषा देवनागरी ने अपने द्वार सब क्षेत्रीय भाषाओं के लिए खोल दिये हैं, जरूरत तो अब उसे देश की माथे की बिन्दी बनाने की है।
००