सत्ताधीश बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का हवाई निरीक्षण कर रहे हैं तो देशवासियों से इस संकटकाल में प्रभावितों को हरसंभव मदद की अपील भी की जा रही है। जाहिर है, केंद्र सरकार भी क्षति के प्रारंभिक अनुमान के आधार पर प्रभावित राज्यों को आर्थिक मदद या उसका आश्वासन दे रही है, पर क्या ऐसा पहली बार हो रहा है? इस पूरे घटनाक्रम को देखकर क्या आपके स्मृति पटल पर पुरानी यादें नहीं कौंधने लगतीं? यादें भी ज्यादा पुरानी इसलिए नहीं कि वे हर साल ऐसी ही स्थितियों की पुनरावृत्ति से ताजा होती रहती हैं। बेशक गुजरते वक्त के साथ बाढ़ की विभीषिका बढ़ती गयी है, उसके कारण और स्रोत भी कुछ बदले हैं, लेकिन इसे प्रकृति का प्रकोप भर बताना तो अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से मुंह चुराने का आपराधिक कृत्य ही है। कहा जा सकता है कि बाढ़ का मुख्य कारण बारिश है, जिसके कारण नदियों में जल प्रवाह बढ़ जाता है, पर क्या इसके लिए बारिश और नदी ही दोषी हैं, और इस समस्या का वाकई कोई समाधान नहीं है?
दरअसल, बारिश में नदियों में बढऩे वाला जल प्रवाह बाढ़ का पुराना और परंपरागत कारण है। नदियों की सुरक्षा-सफाई तथा प्रभावित होने वाले क्षेत्रों में एहतियाती कदम उठाकर इसका भी स्थायी समाधान न सही, होने वाली जानमाल की क्षति को न्यूनतम अवश्य ही किया जा सकता था, लेकिन यह करे कौन? जाहिर है, यह काम सरकार के संबंधित विभागों का है, पर उनके लिए बाढ़ हो या सूखा—समस्या नहीं, बल्कि ऐसा भारी-भरकम बोनस है, जिसकी आस वे हमेशा लगाये रहते हैं। बाढ़ राहत और पुनर्वास के नाम पर जो मदद-मुआवजा सरकार से मंजूर होता है, वह राजनेताओं से लेकर सरकारी तंत्र में ऊपर से नीचे तक बंटता है। अब ऐसे में उसी तंत्र से यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह खुद ही अपनी ऊपरी आय के स्रोत बंद कर ले? देश के कई हिस्सों में हर साल आने वाली बाढ़ के प्रकोप से निपटने के लिए उपायों के अध्ययन के लिए समितियां भी बनती रही हैं, जिन्होंने देर-सवेर अपनी रिपोर्ट भी दी है, पर याद नहीं पड़ता कि किसी रिपोर्ट को सार्वजनिक कर उस पर बहस करायी गयी हो और अमल किया गया हो।
एक ओर राजनीतिक-सरकारी तंत्र के निहित स्वार्थ बाढ़ की विभीषिका से बचाव में बाधक हैं तो दूसरी ओर इनसान का बेलगाम स्वार्थ उसके लिए ही आत्मघाती साबित हो रहा है। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई और अवैध खनन के मूल में राजनीतिक एवं सरकारी तंत्र का भ्रष्टाचार तो है ही, व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से इनसान और समाज भी लालच में प्रकृति से खिलवाड़ करते हुए विनाश को ही आमंत्रित कर रहा है। सरकारी रिपोर्ट भले ही वन आच्छादित क्षेत्र में पिछले सालों में 1 प्रतिशत वृद्धि का दावा करती हो, पर एक स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय संस्था वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट बताती है कि 2001 से 2018 के बीच वृक्ष आच्छादित क्षेत्र में 10 लाख हेक्टेयर से भी ज्यादा कमी आयी है। एक अन्य स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय संस्था इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की रिपोर्ट तो और भी भयावह भविष्य की तस्वीर खींचती है। धरती का लगातार बढ़ता तापमान जलवायु परिवर्तन के परिणामों को खतरनाक स्तर पर ले जा रहा है, जिसका परिणाम विश्व में खाद्यान्न संकट के रूप में सामने आ सकता है। एक ओर वृक्षों की अंधाधुंध कटाई जारी है, तो दूसरी ओर अवैध खनन राजनीतिक एवं सरकारी तंत्र की अवैध कमाई का बड़ा स्रोत बनकर उभरा है। नदियों के तटों से लेकर पहाड़ों तक हर जगह खनन माफिया का कब्जा है, जिसके सिर पर उसी राजनीतिक-सरकारी तंत्र का हाथ रहता है, जिस पर अवैध खनन रोकने की संवैधानिक-कानूनी जिम्मेदारी-जवाबदेही है। दशकों से जारी अवैध खनन और अंधाधुंध वृक्ष कटान का परिणाम अब जलवायु परिवर्तन के परिणामों के रूप में सामने आने लगा है। अब कम समय में ज्यादा बारिश होने लगी है, जिसके प्रवाह को संभाल पाने में जल निकासी तंत्र और अवैध कब्जे से सिकुड़ते गये पाट वाली नदियां समर्थ नहीं हैं। जाहिर है, दोनों के लिए ही सरकारी तंत्र और समाज का आत्मघाती लालच जिम्मेदार है।
मुंबई की बारिश हमेशा चर्चा में रही है, पर वह बाढ़ की विभीषिका में पिछले कुछ सालों से ही तबदील होने लगी है। शेष देश की तरह मुंबई की बृहद महानगर पालिका (बीएमसी) के भ्रष्टाचार के परिणामस्वरूप ध्वस्त जल निकासी व्यवस्था से पहली-दूसरी बारिश में मुंबई की सड़कें और लोकल ट्रेन की पटरियां लबालब होकर कुछ घंटों के लिए तो जनजीवन ठप कर देती थीं, पर एक दशक पहले तक इस मायानगरी में बाढ़ कल्पना की ही चीज थी, जो अब हर साल की भयावह वास्तविकता बन गयी है। भारी-भरकम बजट के बावजूद बीएमसी नदी-नाले तक बारिश से पहले साफ नहीं करा पाती, तो दूसरी ओर नाले पाट कर किये गये अवैध निर्माण और विकल्पहीनता में जर्जर घरों में रहने की विवशता हर साल बारिश और बाढ़ को मुंबईवासियों के लिए मारक बना देती है। यह समस्या सिर्फ मुंबई की नहीं रह गयी है, इस साल तो शेष महाराष्ट्र, कर्नाटक और केरल भी बाढ़ से तबाही में पीछे नहीं रहे। इस साल नौ राज्यों में बाढ़ की विभीषिका लगभग 700 लोगों को निगल गयी। आर्थिक एवं पशुधन की क्षति का आकलन होने में तो अभी समय लगेगा। जाहिर है, प्रभावितों को तो यथाशीघ्र मदद-राहत चाहिए। इनसानियत का भी तकाजा है कि उन्हें यह मदद अविलंब मिले, लेकिन इस क्रम में इस सच से मुंह नहीं चुराया जाना चाहिए कि जब तक बाढ़-सूखा के मूल कारणों का निदान नहीं होगा, जन साधारण की बर्बादी और सत्तातंत्र की लूट का यह सिलसिला अनवरत चलता रहेगा।
इस साल केरल में बाढ़ विभीषिका के मूल में पहाड़ों का धंसना प्रमुख रहा। यह आलम तब है, जब अतीत में हुए अध्ययन पारिस्थितिकी तंत्र की संवेदनशीलता के मद्देनजर खनन के प्रति चेताते रहे हैं। कुछ साल पहले केदारनाथ समेत उत्तराखंड में तबाही के मंजर जरा याद करें। जांच-पड़ताल के बाद बताया गया कि नदियों के किनारों पर अवैध कब्जे कर बनाये गये घर, बाजार, होटलों के चलते जल प्रवाह का दायरा सीमित हो गया, और भारी बारिश बाढ़ के रूप में नदियों से उफन कर प्रलयंकारी बन गयी। केरल और उत्तराखंड तो उदाहरण मात्र हैं, वरना पूरे देश का यही हाल है। आम आदमी से लेकर सरकार तक, प्रकृति और पारिस्थितिकी से खिलवाड़ में शरीक हैं, और जब कभी प्रकृति तल्ख प्रतिक्रिया देती है तो तोहमत भी उसी पर मढ़ दी जाती है। प्रदूषण का ऐसा कौन-सा रूप है, जिसे हम अपनी जीवन शैली से लगातार विकराल नहीं बना रहे? समय के साथ साक्षरता भी बढ़ रही है और शायद जागरूकता भी, पर हम इतनी-सी बात समझने-मानने के लिए तैयार नहीं कि प्रकृति के पांच तत्वों से बनकर जो इनसानी शरीर बना है, उसे प्रकृति के साथ सहज-सरल-संतुलित जीवन जीना चाहिए, पर विकास की मृगतृष्णा में इनसानी लालच इतना बढ़ गया है कि वह अपने सहज-सरल-स्वस्थ जीवन की आधार प्रकृति को ही नष्ट करने पर आमादा है। विकास की चाह में विनाश के आमंत्रण का यह आत्मघाती खेल पूरी दुनिया में चल रहा है, लेकिन भारत के संदर्भ में यह इसलिए बड़ी विडंबना माना जाना चाहिए कि हमारे ईश्वरीय अवतारों से लेकर ऋषि-मुनियों तक सदियों से हमें प्रकृति से प्रेम का उपदेश देते आये हैं। भारत संभवत: विश्व का एकमात्र देश है, जहां प्रकृति की पूजा होती है। जिस प्रकृति को मां माना गया है, जिसकी पूजा की परंपरा रही है, लालच के वशीभूत उसी से खिलवाड़ सिर्फ और सिर्फ आत्मघाती ही साबित हो सकता है। वही हो भी रहा है। अब भी समय है कि हम चेत जायें, इससे पहले कि बहुत देर हो जाये।
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पहले भरोसेमंद विकल्प तलाशिए
एक-तिहाई देश बाढ़ का कहर झेल रहा