अमेरिका-चीन का लव-हेट गेम



26 जुलाई को चीन ने भी अमेरिकी सुर में सुर मिला दिया। चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता हुआ चुनयिंग ने विदेश मंत्रालय की जनरल ब्रीफिंग के दौरान कहा कि भारत और पाकिस्तान, दोनों से चीन को उम्मीद है कि दोनों सद्भाव के साथ रह सकते हैं। 
उम्मीद करते हैं कि दोनों देश बातचीत के माध्यम से कश्मीर मुद्दे और अन्य द्विपक्षीय विवादों को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझा सकते हैं। यहां तक तो सब ठीक था, लेकिन इसके बाद उन्होंने जो कहा, वह भारत की विदेश नीति के लिए चुनौती से कम नहीं है। उन्होंने इस क्रम में दो बातें कहीं। प्रथम, भारत-पाकिस्तान को कश्मीर मुद्दे और अन्य विवादों को बातचीत से सुलझाना चाहिए; और दूसरी, चीन भारत-पाक संबंधों को सुधारने के लिए 'रचनात्मक भूमिकाÓ निभाने में अमेरिका सहित अंतरराष्ट्रीय समुदाय का समर्थन करता है। 
सवाल उठता है कि भारत की तरफ से ट्रंप के दावे का खंडन आने के बाद चीन ने यह हिमाकत कैसे कर दी? क्या वैश्विक शक्तियों का भारत के प्रति इस प्रकार का व्यवहार हमारी विदेश नीति के समृद्ध और शक्तिशाली होने का संकेत है, या नि:शक्तता का? आखिर, अमेरिका और चीन ऐसी हरकत क्यों कर रहे हैं? हम क्या मानें कि भारत को आक्रामक विदेश नीति का अनुसरण करना चाहिए या फिर वह इसी र्ढे पर चलती रहे? हम मानते हैं कि भारतीय विदेश नीति अपने मूलभूत सिद्धांतों से विचलित नहीं हुई है। यह भी मानते हैं कि हमारे प्रधानमंत्री ने अमेरिकी राष्ट्रपति से कश्मीर मुद्दे पर कुछ नहीं कहा होगा, लेकिन हमें यह तो सोचना चाहिए कि आखिर, अमेरिकी राष्ट्रपति ने कश्मीर मुद्दे को क्यों चुना? क्या यह वक्त इस मुद्दे के लिए कोई विशेष महत्त्व रखता है? 
हमें सोचना चाहिए कि चीन, जो अमेरिका से ट्रेड वॉर लड़ रहा है, भी अमेरिकी सुर में सुर क्यों मिला रहा है? इसकी वजह है कि हमने जिस फास्ट ट्रैक और असिट्रिक फॉरेन पॉलिसी का चुनाव किया था, उसकी समीक्षा नहीं की। हमने इंडो-पेसिफिक क्षेत्र में अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर एक एलायंस तैयार कर लिया जिसका मुख्य लेकिन छुपा हुआ उद्देश्य है चीन को घेरना। वहीं, दूसरी तरफ हम शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) में भी पहुंच गए जिसे नाटो अपना प्रतिद्वंद्वी सैन्य गठबंधन मानता है। क्या हमने विरोधाभास को गंभीरता से देखा? इसके परिणामों की समीक्षा की? शायद नहीं। दूसरा पक्ष यह है कि हम अमेरिका के इतने करीब चले गए कि हमारा परंपरागत मित्र रूस हमारे साथ उसे तरह से खड़ा नहीं रह गया जैसे कि पहले खड़ा था। 
इस पूरे दौर में हम इस बात को लेकर बेहद आत्ममुग्ध हुए कि अमेरिका कह रहा है कि भारत उसका 'मेजर डिफेंस पार्टनरÓ है, और अब 99 प्रतिशत अमेरिकी रक्षा प्रौद्योगिकियों तक भारत की पहुंच होगी। लेकिन हमने अमेरिकी थिंक टैंक के र्रिचड ए. रोसॉ की इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि अमेरिका द्वारा भारत को 'मेजर डिफेंस पार्टनरÓ कहना, टेक्निकल डेजिगनेशन की अपेक्षा 'टर्म ऑफ आर्टÓ अधिक है।
गंभीरता से अध्ययन करें तो इस निष्कर्ष पर अवश्य पहुंचेंगे कि वैदेशिक और कूटनीतिक मोच्रे पर भारत को दुतरफा चुनौतियां मिलनी हैं। एक अमेरिका की तरफ से; और दूसरी चीन की तरफ से। अमेरिका इंडो-पेसिफिक के साथ-साथ फारस की खाड़ी में अपनी शक्ति की पुनप्र्रतिष्ठा चाहता है।  उसे इन मोचरे पर भारत की जरूरत है। ईरान मसले पर भारत आधा-अधूरा उसके साथ है। यही स्थिति इंडो-पेसिफिक में बने अलायंस की भी है। वह चीन के साथ चल रहे ट्रेड वॉर में भी भारत का सहयोग चाहता है ताकि चीन को हराया जा सके।
लेकिन भारत इस मामले में अमेरिका के साथ नहीं जा पा रहा है, जाना भी नहीं चाहिए। ठीक इसी तरह से चीन भारत से रणनीतिक युद्ध लड़ रहा है। उसने भारत के चारों तरफ एक घेरा (डिफेंसिव बाउंड्री) तैयार कर ली है, जिसमें न केवल पाकिस्तान बल्कि मालदीव, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार..को भी शामिल कर लिया गया है। कुल मिलाकर भारतीय विदेश नीति के सन्निकट जो स्थितियां निर्मित हुई हैं, या हो रही हैं वे यही बताती हैं कि इनके बीच संतुलन बनाने के लिए भारत को कभी अमेरिका तो कभी चीन की ओर देखना पड़ेगा। इसी का फायदा उठाकर ये दोनों देश लव एंड हेट गेम के साथ-साथ सौदेबाजी का खेल खेलना चाहते हैं। 

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