पिछले कुछ दिनों से देश की राजनीति में इस्तीफों का मौसम-सा आया हुआ है। एक तरफ कांग्रेस पार्टी के नेता अपने अध्यक्ष के इस्तीफे के बाद कतार में खड़े होकर चुनावों में हार के दायित्व को स्वीकारते हुए इस्तीफे दे रहे हैं और दूसरी ओर कर्नाटक में जो नाटक चला, उसमें हमने कांग्रेसी विधायकों को राज्य में अपनी ही पार्टी की सरकार को हटाने के लिए इस्तीफे देते देखा।
कौन-सा राजनेता किस राजनीतिक दल में शामिल होता है, यह उसका अपना निर्णय है। दल-विशेष से इस्तीफा देने की भी उसे पूरी स्वतंत्रता है। पर पार्टी छोडऩे और किसी पार्टी में शामिल होने के हमारे राजनेताओं के अधिकार पर सवाल भी अक्सर उठते रहे हैं। खासतौर पर चुनाव में किसी पार्टी की ओर से उम्मीदवार बना, और चुनाव जीतने वाला राजनेता जब अपनी पार्टी छोड़ता है तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्यों किया उसने ऐसा? अक्सर इस क्यों का उत्तर, दुर्भाग्य से, राजनीतिक स्वार्थ-सिद्धि ही होता है।
यह माना जाता है कि राजनीतिक पार्टियां कुछ नीतियों, मूल्यों और सिद्धांतों पर आधारित होती हैं। ये नीतियां, मूल्य और सिद्धांत घोषित होते हैं। इन्हीं से प्रभावित होकर व्यक्ति किसी पार्टी में शामिल होता है। मतदाता भी जब किसी उम्मीदवार को वोट देता है तो उसके पीछे बड़ा कारण उसके दल-विशेष की घोषित नीतियां भी होती हैं। ऐसे में, सवाल उठता है कि जब कोई पार्षद या विधायक या सांसद एक दल को छोड़कर दूसरे दल में शामिल होता है तो क्या उसे अपने मतदाता से नहीं पूछना चाहिए?
यह या ऐसा सवाल देश में कई बार उठा है। इसीलिए दलबदल को लेकर कुछ नियम भी बनाये गये हैं। लेकिन इन नियमों से कुछ विशेष अंतर नहीं पड़ा। अपने स्वार्थों के लिए हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि बड़े धड़ल्ले से, और बड़ी बेशर्मी से दलबदल करते रहे हैं। न उन्हें ऐसा करते हुए कोई हिचक होती है और न ही ऐसा कराते हुए राजनीतिक दलों को कोई संकोच होता है। मज़े की बात तो यह है कि कोई राजनीतिक दल कल तक जिस व्यक्ति पर गंभीर आरोप लगा रहा होता है, आज उसके पाला बदलने पर बाहें फैलाकर उसका स्वागत करता है। हर राजनीतिक दल अपने आपको गंगा का पवित्र जल समझता है, जिसकी कुछ बूंदें छिड़कने मात्र से ही पापी के पाप धुल जाते हैं!
शायद सत्ता की राजनीति का ही दोष है कि सिद्धांतों और मूल्यों की राजनीति के लिए हमारी राजनीतिक व्यवस्था में कोई जगह नहीं बची। पर जनतंत्र में इस तरह के तमाशों की स्वीकार्यता को लेकर उठा सवाल हमसे उत्तर की अपेक्षा करता ही रहेगा। क्या हमारी राजनीति में सिद्धांतों के लिए सचमुच कोई जगह नहीं बची? इस सिद्धांतहीन राजनीति के बहुत-से किस्से सुने हैं हमने, देखे भी हैं। पता ही नहीं चलता कब कोई राजनेता अपनी टोपी बदल लेता है। अचानक उसकी निष्ठा बदल जाती है। नारे बदल जाते हैं। भाषा बदल जाती है। हमने दलबदल की कृपा से रातों-रात सरकारें बदलती देखी हैं। शायद हरियाणा में कभी हुआ था-पूरे के पूरे मंत्रिमंडल ने एक ही झटके में दलबदल कर लिया था।
ऐसा नहीं है कि व्यक्ति के या समूह के विचार नहीं बदल सकते। पर हमारी राजनीति में तो शायद विचारों के लिए कोई जगह ही नहीं है। एक दल कहता है कि उसे दूसरे दल को समाप्त करना है, देश को मुक्त करना है उस दल से। अपने इस लक्ष्य को पाने का उसने एक तरीका यह भी निकाल लिया है कि अपने विरोधी दल के सदस्यों को ही अपने दल में शामिल कर लिया जाये। खुलेआम होता है यह काम। विरोधियों को लालच देकर, खरीद कर, धमकी देकर अपना बना लिया जाता है। मज़े की बात है कि दोनों ही पक्षों को ऐसा करने में कोई शर्म नहीं आती। दलबदल करने वाला यह ज़रूरी नहीं समझता कि वह देश को, अपने समर्थकों को यह बताये कि वह दल क्यों बदल रहा है?
सवाल उठता है, क्या निर्वाचित प्रतिनिधि का यह दायित्व नहीं बनता कि वह अपना कदम उठाने से पहले उनसे भी कुछ पूछ ले, जिन्होंने उन्हें अपना प्रतिनिधि चुना है? मतदाता ने जब उसे वोट दिया होगा तो उसके राजनीतिक दल की भी तो कोई भूमिका रही होगी। हो सकता है मतदाता ने उसे दल विशेष के कारण ही वोट दिया हो, जिताया हो। आखिर जीतने वाला हर राजनीतिक दल यह घोषणा तो करता ही है कि उसे देश की जनता का समर्थन प्राप्त है। तो दलबदल करने से पहले राजनेता पूछता क्यों नहीं है उस जनता से, जिसने उसे चुना था? इस सवाल को यूं भी रखा जा सकता है कि क्या जनता को यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि वह अपने प्रतिनिधि से यह पूछे कि वह दलबदल क्यों कर रहा है?
सवाल यह भी उठता है कि प्रतिनिधि यह पूछे कैसे? इसका सीधा-सा उत्तर यह है कि दलबदल का इच्छुक राजनेता जब अपने दल से त्यागपत्र दे तो विधानसभा या संसद से भी विदा ले ले। अपनी नयी पहचान के साथ फिर से मतदाता के सामने जाये। समर्थन मांगे। जीते।
पर हमारे राजनेता और राजनीतिक दल मतदाता को इतना महत्वपूर्ण मानते ही कब हैं? हां, जब वोट लेना होता है तो ज़रूर मतदाता की जय-जयकार होती है। उसे बहलाने-फुसलाने या समझाने के लिए कहा जाता है कि जनतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है। पर चुनाव जीतने के बाद तो स्वयं को सेवक घोषित करने वाला राजनेता जैसे राजा बन जाता है। ब्रिटेन वाले कहते हैं-राजा कभी ग़लती नहीं करता। हमारे प्रतिनिधि भी यह मानने लगे हैं। वे तो यह मानते हैं कि उनसे ग़लती हो ही नहीं सकती। यह मानसिकता किसी भी रूप में जनतांत्रिक नहीं है। जनतंत्र में जन सर्वोपरि होता है। जन की उपेक्षा का अर्थ जनतंत्र के मूल्यों की उपेक्षा है। फिर, दलबदल करने वाला जन की उपेक्षा ही नहीं करता, बड़ी बेशर्मी से उसे अंगूठा दिखाता है।
दलबदल की इस शर्मनाक प्रवृत्ति को रोकने के लिए संसद में कुछ कानून बनाकर इस पर अंकुश लगाने की कोशिश की गयी। पर यह कानून संख्या-विशेष के आधार पर दलबदल का औचित्य निर्धारित करता है। यह बीमार पेड़ की पत्तियों पर दवा छिड़कने जैसी बात है। बीमारी जड़ में है। दवा की ज़रूरत जड़ को है। कोई रास्ता तो निकालना ही होगा कि हमारे निर्वाचित राजनेता जनतंत्र की मर्यादाओं को समझें। उन्हें यह अहसास होना ही चाहिए कि जिस मतदाता ने उन्हें चुना है, उसका भी कुछ अधिकार है। यह हमारी संसद को तय करना है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों को यह अहसास कैसे कराया जाये। जनतंत्र की सार्थकता के लिए ज़रूरी है कि कोई ऐसी व्यवस्था बने, जिसमें अपने स्वार्थ के लिए दलबदल करने वाले को थोड़ी शर्म आये। थोड़ी क्यों, पूरी शर्म आनी चाहिए ऐसा करने वालों को।
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