सुपर थर्टी के संस्थापक आनंद कुमार लगातार खबरों में बने रहने के बाद अभी खुद पर बनी बायोपिक को लेकर चर्चा में हैं। पटना में उनके काम को शोहरत इसलिए मिली कि उनके संस्थान के छात्र लगातार आईआईटी प्रवेश परीक्षा में सफल होते रहे हैं। आनंद गरीब परिवारों के बच्चों को न सिर्फ नि:शुल्क कोचिंग देते हैं बल्कि उनके खाने-रहने की व्यवस्था भी अपनी ओर से करते हैं। इस तरह उन्होंने बिहार के अनेक निर्धन परिवारों के जीवन में रोशनी बिखेरी और बहुतों को आगे बढऩे की प्रेरणा दी। आज जब भारतीय मध्यवर्ग में आईआईटी जैसे संस्थानों में प्रवेश के लिए मारामारी मची है और कोचिंग पर लाखों खर्च किए जा रहे हैं, तब एक किसान या मजदूर के बच्चे को वहां तक पहुंचाना और उसके लिए अच्छी नौकरी के रास्ते खोलना वाकई असाधारण काम है।
आनंद ने साबित किया है कि समाज के हर तबके में ऊपर आने की क्षमता होती है लेकिन कमजोर घरों के बच्चे आगे नहीं आ पाते क्योंकि इस सिस्टम को पैसे से हाईजैक कर लिया गया है। आईआईटी की प्रवेश परीक्षा का स्वरूप अगर कोचिंग की जरूरत नहीं पैदा करता तो समाज के हर वर्ग की उसमें समान रूप से पहुंच होती। लेकिन आज इन संस्थानों में ज्यादातर वही बच्चे दाखिला पा रहे हैं, जो लाखों की कोचिंग करते हैं। बहरहाल, आनंद की अपनी सीमा है। उन्होंने सिस्टम का विकल्प नहीं खोजा, अपने संकल्प से बने-बनाए सिस्टम का दायरा बढ़ा दिया। उनकी कोशिशों से इसमें उन मु_ीभर लोगों के लिए भी गुंजाइश बन पाई जो साधन के अभाव में इससे बाहर रह जाते। लेकिन आनंद कुमार का कद और बड़ा हो जाता, अगर वे इस दमघोंटू और तोतारटंत शिक्षा-परीक्षा प्रणाली को बदलने की दिशा में कोई दबाव बना पाते। सचाई यह है कि एंट्रेंस पेपर हल करने के मशीनी तरीके को ही उन्होंने चरम बिंदु तक पहुंचा दिया और शिक्षा को घुन की तरह खा रहे कोचिंग सिस्टम का एक पैरलल सब-सिस्टम खड़ा कर लिया।
देश के तमाम शिक्षाविद और विशेषज्ञ मानते हैं कि कोचिंग ने शिक्षा का बेड़ा गर्क कर दिया है। वैज्ञानिक उत्सुकता या तकनीकी पहल के लिए यहां कोई गुंजाइश नहीं रह गई है। बच्चे मशीन की तरह कोचिंग क्लासेज अटेंड करते जा रहे हैं, उनके जानलेवा रुटीन से बीमार हो रहे हैं, डिप्रेशन में जा रहे हैं, यहां तक कि आत्महत्या का रास्ता अपना रहे हैं। क्या ही अच्छा होता कि मुंबई फिल्म इंडस्ट्री अपनी कुछ रचनात्मकता भारत के वैज्ञानिकों, गणितज्ञों और असाधारण उपलब्धियां हासिल करने वाले इंजीनियरों की कहानियां सुनाने में भी जाहिर करती। श्रीनिवास रामानुजन पर फिल्म देखने के लिए भी हमें हॉलिवुड का ही मुंह क्यों देखना पड़ता है? कैसी विडंबना है कि 2009 में केमिस्ट्री का नोबेल प्राइज जीतने वाले वेंकटरमन रामकृष्णन ने जिस कोचिंग इंडस्ट्री को भारत की साइंस-टेक्नॉलजी के लिए सबसे बड़ा विलेन बताया था, उसी में आज हमें हीरो नजर आ रहे हैं।