महंत रामदास बीहड़ वन से अकेले गुजर रहे थे, जहां वन्य प्राणियों के अलावा चोर-डाकुओं का भी हरदम भय था। अकस्मात एक डाकू महंत के सामने आया और अपनी बंदूक दिखाते हुए दहाड़ा-जो कुछ भी तुम्हारे पास है, वह सब मुझे दे दो वरना जान देनी पड़ जाएगी। हट्टे-कट्टे महंत ने बंदूक से बिना डरे कहा-भाई, यह मांग-मांग कर एकत्र किया गया पैसा गरीबों की मदद के लिए है, तुम इसे क्यों लूटते हो। डाकू बोला-अरे, मैं भी तो गरीब हूं। देख नहीं रहा, दर-दर की खाक फांक रहा हूं। यह कहते हुए उसने महंत का थैला छीन लिया। इस पर महंत बोले-भाई, गरीबों का पैसा मैंने इस तरह लुटवा दिया, इस पर कोई विश्वास नहीं करेगा। तुम ऐसा करो कि मेरे दुशाले पर एक कारतूस दाग दो ताकि ऐसा लगे कि मैंने अपने सामान के लिए संघर्ष किया था। डाकू बोला-कोई फायदा नहीं होगा, इसमें कारतूस ही नहीं है। यह तो केवल लोगों को डराने के लिए साथ रखता हूं। यह सुनकर संत डाकू पर झपट पड़े। हकबकाया डाकू तगड़े महंत का अकस्मात वार न सह सका और धड़ाम से नीचे आ गिरा। महंत ने उसकी लात-घूंसों से सेवा करते हुए थैले में से रस्सी निकालकर एक पेड़ से बांध दिया। उन्होंने अपना सारा सामान समेटा और डाकू की बंदूक भी अपने साथ ले ली ताकि वह भविष्य में और किसी को डरा- धमका कर लूट न सके